Zenab rehan

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चौथा अध्याय





अब रहा बीच का 21वाँ श्लोक। इसमें विकर्म को ही अकर्म या कर्म-त्याग बन जाने की बात कही गई है। क्योंकि किल्विष या पाप का प्रश्न तो वहीं पैदा होता है न? इसका भी रास्ता साधारणत: वही है जो कर्म को अकर्म बनाने का। मगर श्लोक में कुछ खास बातें कही गई हैं। यही इसकी विशेषता है। जो कुछ कहा गया है उसका निचोड़ यही है कि कोई भी काम करने में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि के एक साथ होने पर ही वह पूरा होता है और उसकी पूर्ण जवाबदेही होती है। लेकिन यदि मन और बुद्धि को उधर से खींच लें और केवल शरीर या इंद्रियों को ही - क्योंकि बाहरी इंद्रियाँ या हाथ-पाँव आदि शरीर में ही आ जाते हैं; इसीलिए श्लोक में 'शारीरं' कहा है - उसे करने दें, तो जवाबदेही छूट जाती है। यही बात श्लोक में 'यत्तचित्तात्मा' और 'केवलं शारीरं' से कही गई है। 'केवल शरीर से' यह तो 'यत्तचित्तात्मा होने या मन और बुद्धि को काबू में कर लेने का परिणाम ही है। इसकी पहचान के लिए 'त्यक्तसर्वपरिग्रह:' कहा है। सब लवाजिम और डल्ले-पल्ले से नाता तोड़ लेना - न कोई आगे हो न पीछे, न घर-बार हो और न दूसरी ही कोई जरा भी संपत्ति। तभी तो पक्की पहचान होती है कि सचमुच इस आदमी का मन किधर है। कुछ भी घर-गिरस्ती या कपड़ा-लत्ता होने पर मन उसी में जाता ही है।

यहाँ यह भी जान लेना होगा कि यद्यपि संकल्प और आसक्ति को आमतौर से एक ही मानते हैं, तथापि दोनों में कुछ न कुछ फर्क है। संकल्प भी आसक्ति का ही एक रूप है। मगर कोई भी काम शुरू होने के पहले जो आसक्ति होती है चाहे, उस काम के पूरे होने की या फल की, या दोनों की ही, उसके फलस्वरूप जो मन में उसके बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं कि यों करेंगे, त्यों करेंगे वही संकल्प है। काम शुरू होने पर उसके खत्म होने-न होने के बाद तक जो कर्म और फल से मन का चिपकना है वही आसक्ति है। इसीलिए मौलिक भेद न होने पर भी कुछ न कुछ भेद हई। इसीलिए दोनों को जुदा-जुदा कहा गया है। गीता में कई बार ऐसा मौका आया है। यहीं यह भी जान लेना चाहिए कि यह 'सम:सिद्धावसिद्धौ' तीसरे अध्यायय में तो आया नहीं। यहीं पर इस अध्यावय में एक बार और तीन बार द्वितीय अध्यााय में आया है। मगर पहले दो बार ज्ञान के संबंध में और बाद में एक बार कर्म के संबंध में। यहाँ भी कर्म के ही संबंध में इसमें और 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' में पूर्ण समानता है। ज्ञान और कर्म के समत्व का भेद पहले ही बताया जा चुका है।

23वें श्लोक में यज्ञार्थकर्म - यज्ञायकर्म - की बात आ जाने से 24वें से लेकर 31वें तक 8 श्लोकों में यज्ञों की ही बात आ गई है। इनमें भी 30वें के पूर्वार्द्ध तक साढ़े छ: श्लोकों में कुल पंदरह प्रकार के यज्ञों का वर्णन है। शेष डेढ़ में उनकी महत्ता बताई गई। यज्ञ सब पापों और बुराइयों को धो देते हैं, और यज्ञ के बाद ही बचे-बचाए पदार्थों को अमृत समझ उन्हें भोगनेवालों को ब्रह्म की प्राप्ति भी होती है, यही दो बातें कही गई हैं। मगर 31वें के उत्तरार्द्ध में जो यह कहा है कि यज्ञ न करने वाले का तो काम यहीं नहीं चल सकता, परलोक की बात तो दूर रहे, वह यह सूचित करता है कि गीता का यज्ञ बहुत ही व्यापक है। फलत: इसके भीतर समाजोपयोगी कार्य भी एक-एक करके आ जाते हैं। असल में जिन पंदरह यज्ञों को गिनाया है उनके भीतर दुनिया के सभी काम आ जाते हैं। खूबी तो यह है कि पंदरह तरह के यज्ञों को गिना के अंत में यह कह दिया है कि इस तरह के बहुतेरे यज्ञ वेदों में आते हैं - 'एवं बहुविधा या वितता ब्रह्मणो मुखे'। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि नमूने के रूप में या दल और किस्म के रूप में ही ये पंदरह गिनाए गए हैं। दरअसल हरेक के पेट में सैकड़ों-हजारों तरह के यज्ञ आ सकते हैं।

यज्ञों के बारे में थोड़ा और भी विचारें तो अच्छा हो। तीसरे अध्यासय में भी 'यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र' (3। 9) में यज्ञार्थ कर्म की बात आई है। वही यहाँ भी है। गौर से देखने से यह भी पता चलता है कि दोनों श्लोकों में एक ही बात है। इसीलिए संग या आसक्ति का त्याग वगैरह भी दोनों में ही आए हैं। अगर वहाँ 'कर्मबंधन' से छूटने की बात है तो यहाँ कर्मों के समग्र या जड़मूल से खत्म हो जाने की बात है। मगर दोनों का आशय एक ही है। हाँ, एक अंतर जरूर है और है वह महत्त्वपूर्ण। यहाँ 'ज्ञानावस्थितचेतस:' कहने से बुद्धि का ज्ञान में या आत्मचिंतन में डूबना लिखा है। उसके आगे जो 'ब्रह्मार्पणं' (4। 24) श्लोक है उससे भी यही सिद्ध होता है। इसमें तो कर्म को समाधि का रूपांतर बना दिया है और कह भी दिया है। जब ब्रह्म के सिवाय और कोई खयाल हई नहीं तो समाधि तो पूरी होई गई। मगर जैसा कि वहीं कह चुके हैं, तीसरे अध्या य में यह बात नहीं है। वहाँ जनसाधारण की बात ही आई है, हाय-हाय छोड़ के कर्म करने की जरूरत उन्हें बताई गई है और उन्हीं कर्मों से यज्ञ के स्वरूप का निर्माण कहा गया है। इस तरह एक पहेली-सी खड़ी हो जाती है। मगर इसका समाधान भी है।

असल में तीसरे अध्याहय की स्थिति से आगे तक की स्थिति को ही दृष्टि में रख के चौथे अध्याहय में कर्म, अकर्म और यज्ञ का निरूपण आया है। यह तो ठीक ही है कि पूर्ण ज्ञानी के कर्मों की बात यहाँ बार-बार आई है। मगर 30वें के 'यज्ञक्षपितकल्मषा:' और पूरे 31वें श्लोक से ही सिद्ध हो जाता है कि पूर्ण ज्ञानी से नीचे दर्जे के लोगों के लिए भी यज्ञ की बात यहाँ कही गई है। क्योंकि ज्ञानी को पाप से ताल्लुक ही क्या? उसका पाप तो ज्ञान ही जला देता है। वही कर्म को भी जलाता है। साथ ही, यज्ञ शेष अमृत का भोग करने वाले सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, इस कथन से भी पता चलता है कि ऐसा करते-करते जब उनका अंत:करण निर्मल हो जाता है तभी पूर्ण ज्ञान के द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। क्योंकि ज्ञानी तो ब्रह्मरूप हई। फिर खा-पी के ब्रह्म को क्या खाक प्राप्त करेगा? मुमुक्षुओं के भी कर्म करने की बात इसी अध्याूय में पहले कही गई भी है। 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:' (4। 38) से भी पता लगता है कि कर्म से अंत:करण की शुद्धिरूपी संसिद्धि मिलने पर ही ज्ञान प्राप्त होता है। क्योंकि वहाँ 'योगसंसिद्ध:' शब्द का सिवाय इसके दूसरा अर्थ संभव नहीं कि 'कर्मों के करने से जिसका अंत:करण शुद्ध हो गया है'। उसके आगे 'योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम्' (4। 41) से भी स्पष्ट है कि कर्म करते-करते अंत:करण की पवित्रता हो जाने पर ही कर्मों का स्वरूपत: संन्यास करना जरूरी हो जाता है, ताकि निदिध्या सन और समाधि यथोचित रीति से हो सकें और पूर्ण आत्मसाक्षात्कार हो जाए। जब तक कर्म न करे तब तक उसका संन्यास असंभव है, यह तो 'नकर्मणामनारम्भात्' (3। 4) में कही चुके हैं। इसलिए यहाँ यह कहना कि 'योग यानी कर्म करके ही जिसने कर्मों का संन्यास किया है' ठीक ही है। इसीलिए यही बात 'आरुरुक्षोर्मुने:' (6। 3) में तथा 'संन्यासस्तु महाबाहो' (5। 6) में भी कही गई है। हम इस पर विशेष प्रकाश भी डाल चुके हैं। यही कारण है कि 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि' (4। 37) और 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं' (4। 19) के साथ इस 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:' को मिला देने पर 'सर्वं कर्माखिलं पार्थ' (4। 33) में 'परिसमाप्यते' के पर्यवसान के दोनों ही अर्थ करने जरूरी हो जाते हैं। एक तो यह कि सभी कर्मों का फल दरअसल ज्ञान ही है। दूसरा यह कि ज्ञान के बाद सभी कर्म-जड़ मूल से खत्म हो जाते हैं। 'समग्रं प्रविलीयते' और 'सर्वंकर्माखिलं परिसमाप्यते' का बहुत सुंदर मेल भी है, यदि शब्दों के अर्थों पर गौर करें।

इतना ही नहीं। यदि यज्ञों के स्वरूपों को भी देखें तो पता चलता है कि आत्मज्ञानी के सिवाय दूसरों के भी यज्ञ उनमें आए हैं। 'ब्रह्मार्पणं' आदि श्लोक में ठीक आत्मज्ञानी का ही यज्ञ है। मगर उसके बाद जो देवयज्ञ आदि का वर्णन है वह तो निश्चय ही आत्मज्ञानियों के यज्ञ का नहीं है। वह भला देवताओं का यज्ञ क्यों करने लगे? उनकी नजरों में देव-दानव वगैरह तो हई नहीं। यज्ञ भी स्वतंत्र कोई चीज नहीं है। शेष चौदह यज्ञों का भी यही हाल है। 'ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं' में भी ब्रह्मरूप में देही आत्मा का चिंतन चलता है। इसीलिए वह यज्ञ भी आत्मज्ञान के पहले की चीज है इसी प्रकार ज्ञानयज्ञ भी बड़ा व्यापक है। इसीलिए गीता के अंत (18। 70) में गीता के पढ़ने-पढ़ाने को भी ज्ञानयज्ञ कह दिया है। फलत: ज्ञानयज्ञ आत्मज्ञान को ही कहते हैं यह तो माना जा सकता नहीं। जब 'ब्रह्मार्पणं' आदि आत्मज्ञानरूपी यज्ञ से पृथक ही ज्ञानयज्ञ गिनाया है तो वह जरूर ही दूसरे ही प्रकार का है।

बात असल यह है कि यज्ञ में किसी न किसी पदार्थ की आहुति अग्नि आदि में दी जाती है। इसी समानता के खयाल से जहाँ एक पदार्थ को दूसरे के पास ला के खत्म किया वहीं यज्ञ नाम दे दिया गया है। आहुति के बाद उसके पदार्थ खत्म तो होई जाते हैं। विषयों में जाने पर इंद्रियों की परेशानी जाती रहती है। मालूम पड़ता है कि वह खत्म हो गई। इंद्रियों के पास आ के विषय तो खत्म होते ही हैं। ब्रह्म के रूप में आत्मा का चिंतन करने से उसका देहयुक्त रूप तो खत्म होई जाता है। मन के रोकने से इंद्रियों की और प्राण की भी क्रियाएँ खत्म होई जाती हैं। पूरक में प्राण की क्रिया होती नहीं। क्योंकि वायु बाहर जाए तब न? वहाँ तो भीतर ही खींचा जाता है और वही है अपान की क्रिया। रेचक में वायु, बाहर ही निकालते हैं। इसीलिए वहाँ अपान की ही क्रिया गायब है। कुंभक में दोनों की ही क्रिया रुक जाती है। यद्यपि प्राणायाम तीनों को ही मिला के या अलग-अलग भी कहते हैं। मगर पूरक-रेचक को जुदा गिना देने के बाद प्राणायाम के मानी हैं केवल कुंभक। इसी प्रकार सभी यज्ञों के बारे में जानना होगा। 'सर्वेऽप्येते यज्ञविद:' (4। 30) में विद का अर्थ ज्ञान नहीं, किंतु लाभ है। अत: यज्ञविद: का अर्थ है यज्ञ करनेवाले।

यहाँ आत्मज्ञान के सिवाय दूसरे यज्ञों के वर्णन करने का आशय यही है कि जिनकी मनोवृत्ति बहुत ऊँची नहीं उठ सकी है वह भी धीरे-धीरे उस दशा में पहुँच जाएँ। इसीलिए सभी क्रियाओं में यज्ञ की भावना का उपदेश है। 'यत्करोषि' (9। 27-28) में जिस प्रकार सभी क्रियाओं में भगवान की पूजा या भेंट की भावना का उपदेश किया गया है; ठीक वही बात यहाँ है। भगवान की भेंट की ओर स्वभावत: लोगों का खयाल जा सकता है। इसलिए वह एक आसान उपाय है। मगर जो लोग भगवान को नहीं मानते या उतनी दूर नहीं जा सकते - क्योंकि यह भावना आसान नहीं है - उन्हें यज्ञ की भावना के द्वारा तैयार करने का यह रास्ता है। आखिर यज्ञ, सैक्रिफाइस (sacrifice) या कुर्बानी तो सभी धर्म-मजहबों की चीज है। समाजहित की दृष्टि से तो धर्म न मानने वालों के लिए भी मान्य है। इसीलिए इस सुगम और व्यापक मार्ग का उपदेश यहाँ किया है। इसका परिणाम यह होगा कि पदार्थों को भोगते हुए भी अलग-अलग खाना, सोना आदि बुद्धि या भावना न करके सर्वत्र यज्ञ की ही बुद्धि करते रहने से मन की एकाग्रता हो जाएगी। फिर तो उसे यज्ञ से मोड़ के आत्मा में लगाना अगला ही कदम होगा। 'यथाभिमतध्यानाद्वा' (योग. 1। 39) में पतंजलि ने यही माना है। यही सबसे आसान मार्ग है भी।

इसीलिए 'कर्मजान्विद्धितान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' में जो कहा है कि इन यज्ञों को कर्मों से ही होने वाले मानने से ही मुक्ति या कर्मों से छुटकारा होगा, उसका भी अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। यज्ञों को कर्मजन्य जानने से छुटकारे का मतलब यही है कि अलग-अलग कर्मों की भावना तो रही ही नहीं। अब सभी कर्म यज्ञ बन गए। फिर तो करने वाले का यह खयाल होगा ही नहीं कि हम खाते-पीते हैं, खेती करते हैं आदि-आदि। किंतु वह तो बराबर यही समझता रहेगा कि यज्ञ हो रहा है। इस तरह कर्म की स्वतंत्रता खत्म हो गई। वे बन गए यज्ञ और यज्ञ बनने का फल अभी बताई गई एकाग्रता ही है। हमने जब यह जान लिया कि कोई और काम तो होता नहीं कि उसके भले-बुरे फल होंगे। यहाँ तो केवल यज्ञ हो रहा है। तो फिर कर्मों के फल हमें मिलेंगे कैसे? हाँ, यदि ऐसी भावना न रहती तो भिन्न-भिन्न कर्मों की कल्पना करके हम उनके फलों में फँसते। मगर अब तो यज्ञ का ही फल मिलेगा और वह होगी मन की एकाग्रता। इसीलिए इन कर्मों से यज्ञ हो रहा है या इन कर्मों के रूप में ही यज्ञ हो रहा है यह ज्ञान कर्मों से छुटकारे के लिए आवश्यक है।

एक ही बात और रह जाती है जो इस श्लोक में आई है। जब यज्ञों के भीतर आत्मज्ञान या ब्रह्मसमाधि भी आ गई, जिसका वर्णन 'ब्रह्मार्पणं' में किया है, तो उसे कर्मजन्य कैसे कहा जाएगा, प्रश्न हो सकता है। परंतु यहाँ तो साफ ही उस समाधि को उसी श्लोक में 'कर्मसमाधि' कह दिया है। वहाँ तो क्रिया में ही ब्रह्म की भावना अथ से इति तक है, और अगर कर्म होगा ही नहीं - क्रिया होगी ही नहीं - तो यह भावना होगी कैसे? इसीलिए वह भी कर्मजन्य ही है, इसमें कोई शक नहीं। इसी से उसे सभी यज्ञों से श्रेष्ठ कहा है। 28वें श्लोक वाला ज्ञानयज्ञ यद्यपि व्यापक है और आत्मज्ञान के अलावे बाकियों को ही यहाँ ज्ञानयज्ञ मानना उचित प्रतीत होता है; फिर भी 33वें श्लोक में ज्ञानयज्ञ कहने, प्रसंग को देखने तथा उत्तरार्द्ध में सिर्फ ज्ञान शब्द होने से भी 'श्रेयान्द्रव्यमयात्', (4। 33) में ज्ञानयज्ञ शब्द से केवल आत्मज्ञान का समझा जाना रुक नहीं सकता। यद्यपि यज्ञों को 'यज्ञक्षपितकल्मषा:' के द्वारा पवित्र करने वाले कहा है; तथापि 'नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' (4। 38) में ज्ञान को जो सबसे बढ़ के पवित्र करने वाला कहा है उससे भी उसकी यज्ञरूपता सिद्ध हो जाती है। यह ज्ञान अद्वैत आत्मा का ज्ञान ही है यह बात 'ये न भूतान्यशेषेण्' (4। 35) श्लोक से स्पष्ट हो जाती है। क्योंकि जब आत्मा और ब्रह्म एक ही होंगे तभी तो सभी पदार्थ आत्मा में और ब्रह्म में भी नजर आएँगे।

इस प्रकार 35वें श्लोक तक कर्म को अकर्म कर देने की बात कह दी गई और विकर्म को ही अकर्म बन जाने की भी। 36वें में भी विकर्म को ही अकर्म बना दिया है। क्योंकि वृजिन या पाप का प्रश्न तो विकर्म में ही होता है, सुकर्म या कर्मत्याग में नहीं। यह ठीक है कि यहाँ समस्त वृजिन कहने से जब पाप का समुद्र लेंगे - सभी पाप लेंगे - तो संचित और पुराने पाप भी आई जाएँगे। मगर इससे क्या? यह तो और भी सुंदर हुआ कि भूत और भविष्य काल के विकर्म भी अकर्म बन गए और सिद्धांत की व्यापकता हो गई। इसी तरह 37वें श्लोक में ईंधनों का दृष्टांत देकर कर्म समूह के जला देने की जो बात कही गई है उससे भी यह सिद्ध हो जाता है कि ज्ञान से न सिर्फ वर्तमान कर्म अकर्म बन जाते हैं। किंतु भूत और भावी कर्म भी, और इस तरह कर्म के अकर्म बन जाने का भी सिद्धांत व्यापक बन जाता है।

रह गई अकर्म या विकर्म के कर्म बन जाने की बात। सो तो बड़ी मोटी है। इसमें ज्यादा कहने की जरूरत है नहीं। 'कर्मेंद्रियाणि संयम्य' (3। 6-7) आदि श्लोकों में ही यह बात साफ-साफ कह भी दी गई है। उससे बढ़ के सफाई के साथ और क्या कहा जा सकता है? इसी प्रकार कर्म में विकर्म या विकर्म में कर्म की भी बात है। वह धर्मशास्त्रों में भी पाई जाती है और ज्ञान की अपेक्षा नहीं करती। असल में आत्मज्ञान के फलस्वरूप जो परिवर्तन कर्म या अकर्म में होता है, उसी का निरूपण यहाँ है, न कि और कोई। जो चीजें परिस्थिति के ही करते बदल जाती हैं, न कि ज्ञान के करते, उनका ताल्लुक दरअसल गीता से है नहीं। इसीलिए गीता ने या तो तीसरे अध्यााय की तरह प्रसंगवश उनके बारे में कुछ कह दिया है या छोड़ दिया है। क्योंकि उनकी बखूबी जानकारी स्मृतियों से और अन्य ग्रंथों से भी हो सकती है। कर्मयोग का मूलाधार आत्मज्ञान होने के कारण और इस अध्या य में ज्ञान का प्रसंग होने के कारण भी ज्ञान से होने वाली कर्म-अकर्म की बातें ही यहाँ कही गई हैं।

सिर्फ 34वें श्लोक की एक बात रह जाती है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए तत्त्वदर्शी गुरु के पास जा के पहले तो उसके सामने नम्रतापूर्वक आत्मसमर्पण करना होगा। उसके बाद यथाशक्ति सेवा करना जरूरी है। जब नम्रता और सेवा से गुरु महाराज संतुष्ट दीखें तभी मौका पा के आत्मा-परमात्मा के बारे में प्रश्न करना उचित है। यही गीता ने माना है। अर्जुन ने यही किया भी था। ऐसा नहीं कि चट पहुँचे और पट प्रश्न ही कर दिया। फिर सूखे काठ की तरह तने पड़े रहे। जो आत्मज्ञानी और मस्त होगा वह इस पर कभी आँख भी न फेरेगा। प्रश्न का उत्तर देना और समझाना-बुझाना तो दूर रहा। किसी मस्त से, जो बड़े-बड़े मिट्टी के ढेलों के बीच पड़ा रहता था, जब किसी महाराजा ने तरस खा के पूछा कि कहिए कैसे कटती है तो उसने चट उत्तर दिया कि कुछ देर तो तेरी जैसी और कुछ देर तुझसे अच्छी! राजा ने समझा था कि ढेलों में कष्ट होता होगा। मगर यहाँ तो उलटी बात सुनने को मिली! असल में नींद के समय तो ढेला, काँटा या पलँग का पता नहीं रहता। इसीलिए सभी की बराबर कटती है। हाँ, जगने पर मस्त तो मस्त ही झूमते हैं। मगर राजे-महाराजे हजार चिंता में मरते हैं। यही वजह है कि मस्तराम की उस समय अच्छी कटती है। फिर वे किसी की परवाह क्यों करने लगे?

'यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहं' (4। 35) श्लोक महत्त्वपूर्ण है। आत्मज्ञान की बात यों तो पहले भी बार बार 2, 3, 4, अध्यावयों में आई है। उसके प्राप्त होने पर आत्मज्ञानी योगी या मस्तराम की क्या दशा होती है। यह बात भी कितनी ही बार कितने ही ढंग से कही गई है। मगर अभी तक यह कहीं नहीं बताया गया कि उस ज्ञान का रूप कैसा होता है। यह एक बुनियादी और मौलिक बात है जो अब तक छूटी है। ज्ञान का एक यह जबर्दस्त पहलू है जिस पर प्रकाश पड़ना जरूरी था। यह बात इसी श्लोक में पहले-पहल आई है। यही कारण है कि इस अध्यापय के अंत में जो समाप्तिसूचक वाक्य 'इतिश्री' आदि है उसमें इस अध्याईय को, इसमें प्रतिपादित मुख्य विषय के कारण ही, 'ज्ञान-कर्म-संन्यास योग' नाम दिया गया है। कर्म-संन्यास की बात भी इस अध्यािय में आई है यह तो पहले ही कहा है मगर आगे 'योगसंन्यस्तकर्माणं' (4। 41) में साफ ही कर्म-संन्यास आया है न कि अकर्म शब्द के अर्थ के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से आया है। अध्या4य के अंत में यह संन्यास और इसी के बाद 42वें में 'योगमातिष्ठ' के द्वारा कर्म का करना कह के अध्या4य को खत्म किया है। इसीलिए आगे अर्जुन को शंका करने का मौका फौरन ही मिल गया है। यह भी कितना अच्छा है कि पहले ज्ञान और पीछे कर्म संन्यास आया है। फलत: 'ज्ञान-कर्म-संन्यासयोग' नाम देना उचित हो गया!

हाँ, तो उस ज्ञान को जरा देखा जाए। यह तो पहले ही कह चुके हैं कि इस श्लोक में अद्वैत ज्ञान का ही प्रतिपादन है। मगर अद्वैत के मानी केवल यही नहीं है कि जीव और ईश्वर या आत्मा और परमात्मा की एकता है, जैसा कि कह चुके हैं। यह एकता तो हई इसके बिना तो यह संभव होई नहीं सकता कि सभी भूतों या सत्ताधारी पदार्थों को - सारे संसार को - आत्मा में और परमात्मा में - दोनों में ही - देखा जा सके। अगर दोनों दो होते तो यह कैसे संभव था कि जो चीजें आत्मा में दीखतीं वही एक-एक करके परमात्मा में भी नजर आतीं? दो पृथक पदार्थों में ऐसा होना, ऐसा देखा जाना असंभव है। असल में दोनों एक ही हैं। मगर मोह, भ्रम या अज्ञान की भूलभुलैया के चलते अलग-अलग - भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। किंतु आत्मा का साक्षात्कार होते ही यह ज्ञानी मस्त हो के भीतर ही भीतर अपनी पुरानी नादानी पर और दुनिया की भी मूर्खता पर हँसता है कि देखिए न, हम इन्हें दो मानते थे! हालाँकि दोनों एक ही हैं! उफ, ऐसी अंधेर कि एक को दो कर दिया! सो भी ऐसे दो, कि एक दूसरे में जमीन आसमान का फर्क! क्या गजब है! इसी के साथ वह सारे संसार के पदार्थों को अपने ही भीतर - अपनी आत्मा में - अपने आप में - एक-एक करके सिनेमा के चित्रों की तरह साफ-साफ चलते फिरते और काम करते देखता है! उन्हें परमात्मा में भी देखता है! वह तो प्रत्यक्ष ही देखता और मानता है कि मैं ही परमात्मा हूँ और मुझी में यह सारी दुनिया है! संसार के पदार्थों के रग-रग में अपने परमात्मा को - अपने आपको - ओत प्रोत एवं विधा हुआ देख के वह आश्चर्य एवं आनंद में मस्त हो जाता है। यही दशा होने पर हो तो वामदेव बोल उठे कि मैं ही, मनु, सूर्य और सभी कुछ हूँ! यह श्लोक अर्जुन से कहता है कि ज्ञान होने पर तुम्हारी भी यही हालत हो जाएगी, याद रखो! फलत: जब तक ऐसी मस्ती की दशा न आ जाए उसके लिए निरंतर यत्न करना ही होगा।

लेकिन यह अद्वैत तो तभी पूर्ण और सच्चा होगा जब आत्मा-परमात्मा की एकता के अनुभव के साथ ही यह भी दीखने लगे कि यह जगत इस जगत के सभी पदार्थ हमसे - आत्मा से - पृथक नहीं हैं। तभी वास्तविक अद्वैत ज्ञान होगा। यह बात भी इस श्लोक में है। 'अशेषेण भूतानि' कहने से सत्ताधारी हरेक भौतिक पदार्थ के बारे में ऐसा देखने की बात साफ हो जाती है। मगर यह कैसे संभव है। जब तक आत्मा के अलावे अन्य पदार्थों की स्वतंत्र, जुदी सत्ता का अभाव न माना जाए - उनके पृथक अस्तित्व का अभाव न माना जाए? सोने के कड़े कंगन आदि को देख के कोई भी अनुभव कर सकता है कि इनमें सर्वत्र सोना ही सोना है, ये चीजें सोने में ही हैं, सोने से अलग नहीं हैं। इसी प्रकार मिट्टी के अनेक बरतनों के बारे में भी मिट्टी ही मिट्टी का अनुभव करके कह सकता है कि ये सभी पात्र मिट्टी में ही हैं, मिट्टीमय हैं, मिट्टी से जुदे नहीं हैं। लेकिन यह कभी नहीं हो सकता कि इन बरतनों के बारे में कहा जाए कि ये सोने में ही हैं, सोने से अलग नहीं हैं। या कंगन, कड़े आदि के बारे में कहा जाए कि ये मिट्टी ही हैं, मिट्टी से अलग नहीं हैं। क्योंकि इन दोनों में - सोने और मिट्टी में - कोई मेल है नहीं। दोनों की मौलिक विभिन्नता है। मगर श्लोक में जो अनुभव बताया गया है वह तो ठीक इसी तरह का है, इसी प्रकार का होना चाहिए कि ये सभी पदार्थ आत्मा में ही हैं, आत्मा से अलग नहीं हैं।

यहाँ दिक्कत यह पड़ती है कि संसार में असंख्य आत्माएँ हैं और उनकी चैतन्य शक्ति की समानता को देखते हुए यदि किसी प्रकार कहा जा सके भी कि ये सभी आत्माएँ मुझमें ही हैं, मुझसे जुदी नहीं हैं; या जब आत्मा-परमात्मा की एकता है तो आत्मा-आत्मा की एकता भी अर्थ सिद्ध है; इसलिए एकता के खयाल से अगर ठीक ही कह सकें कि सभी आत्माएँ मुझसे जुदी नहीं हैं। तो भी जो अचेतन भौतिक पदार्थ हैं उन्हें कैसे कहें कि ये मेरी आत्मा से - मुझसे - अलग नहीं है? किंतु 'भूतानि अशेषेण' कहने से तो वे भी आते ही हैं। भूत कहने से ही आत्मा के सिवाय शरीरादि सभी आ जाते हैं। जब अशेषेण कह दिया तब तो कोई छूट ही नहीं सकता। इसलिए उनकी भी तन्मयता का ज्ञान आत्मा को, हमें होना ही चाहिए। हाँ, एक ही बात हो सकती है। जैसे सपने में देखे पदार्थों के बारे में जगने पर अनुभव होता है कि मुझसे अलग या मेरे अलावे और कोई चीज जो दीखती थी, कहाँ थी? वहाँ सपने में भी सब कुछ मैं ही था, मेरे अलावे और तो कुछ था नहीं। या जैसे रस्सी में भ्रम से माने गए साँप के बारे में उजाले में यही अनुभव होता है कि यह तो रस्सी ही है; यही साँप मालूम पड़ती थी; इसके अलावे कोई साँप-वाँप तो है नहीं। ठीक यही बात संसार के बारे में भी हो कि मुझसे अलग कहाँ कोई चीज है? मैं ही तो सर्वत्र हूँ, सब में हूँ। मेरे अलावे तो और कुछ हई नहीं। तभी श्लोक का अर्थ ठीक-ठीक जँचेगा। तभी वास्तविक अद्वैतवाद भी सिद्ध होगा।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति॥38॥

क्योंकि (वस्तुत:) इस दुनिया में ज्ञान से बढ़ के पवित्र - शुद्ध करने वाली - चीज दूसरी हई नहीं। कर्मों के फलस्वरूप जिसका अंत:करण - मन - शुद्ध हो गया है वही इसे समय पा के अपने में ही हासिल कर लेता है। (बाहर जाने या ढूँढ़ने की जरूरत नहीं होती)। 38।

जो समझते हैं कि मन की शुद्धि और स्थिरता के बाद फौरन ही ज्ञान हो जाएगा, उन्हीं के लिए यहाँ 'कालेन' - समय पा के - कहा गया है। इसे प्राप्त करने में समय लगता है, देर होती है। क्योंकि भावना, निदिध्यानसन और समाधि की जरूरत तो होती है और उसमें काफी समय लगता है। इसी बात का स्पष्टीकरण अगले दो श्लोक करते हैं। 'आत्मनि' - आत्मा में - कहने का अभिप्राय यही है कि आत्मा का ही तो ज्ञान होना है और उसी में तो जगत को देखना है, भीतर ही ढूँढ़ना है तीर्थ में या कहीं और तो जाना-वाना है नहीं।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्धवा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति॥39॥

जो श्रद्धा वाला है, जिसने अपनी इंद्रियों को बखूबी काबू में कर लिया है और जो इस बात में दिन-रात मुस्तैद है, उसी को ज्ञान होता है। ज्ञान पर अखंड शांति का अनुभव फौरन ही होने लगता है। 39।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:॥40॥

(विपरीत इसके) जो कुछ जानता ही नहीं, जिसे श्रद्धा भी नहीं है और जिसके मन में संशय ने घर कर लिया है वह चौपट ही हो जाता है। (क्योंकि हर बात में शक करने वाले का न तो यहीं काम चल सकता है और न परलोक में ही। उसे चैन तो कभी मिलता ही नहीं। 40।

यहाँ अज्ञ कहने का अभिप्राय यही है कि आत्मज्ञान के उपायों के बारे में भी कुछ न जानता हो; इसीलिए न तो उसका इंद्रियों पर काबू ही हो और न मुस्तैदी ही। पहले श्लोक की यही बातें ज्ञान के लिए मूल रूपेण आवश्यक हैं और यही उसमें हैं नहीं। वह कोरा ही है, यही तात्पर्य है। श्रद्धा हृदय की चीज है। केवल तर्क-दलीलों पर ही निर्भर न करके विश्वास करना ही पड़ता है। तभी ज्ञान होता है। मगर जो श्रद्धालु नहीं हैं, उनका हृदय नीरस होता है। फलत: केवल दिमागी तर्कों से ही वे निश्चय करना चाहते हैं। परिणाम यह होता है कि बात-बात में शक करते रहते हैं। क्योंकि 'तर्कोऽप्रतिष्ठ:' के अनुसार तर्क तो कहीं जा के स्थिर हो नहीं सकता। वह तो पहरेदार सिपाही है और वह पहरेदार सिपाही क्या जो बराबर चलता न रहे और स्थिर या खड़ा हो जाए? और जब कहीं किसी बात पर स्थिरता नहीं, निश्चय नहीं, तो सर्वत्र संशय का एकच्छत्र राज्य समझिए। फिर तो मौत ही मौत है। क्योंकि खान-पान आदि में भी संशय हो सकता है कि पाचक ने जहर तो नहीं दे दिया है, बाजार से मँगाई चीजों में ही किसी शत्रु ने विष तो नहीं मिला दिया है, आदि-आदि। इसीलिए इस दुनिया का काम ही जब नहीं चल पाता तो ऐसा लोगों का परलोक क्या बनेगा खाक?

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निब ध्न न्ति धनंजय॥41॥

हे धनंजय, जिसने कर्म करते-करते अंत में उसके संन्यास की दशा प्राप्त कर ली है, जिसने आत्मज्ञान के बल से संशय को खत्म कर दिया है (और इसीलिए) जिसने आत्मा को पा लिया है कर्म उसे बंधन में डाल नहीं सकते। 41।

यहाँ 'आत्मवन्तं' कहने का अभिप्राय यही है कि वह आत्मावाला हो गया है, यानी जो आत्मा खोई थी उसे प्राप्त कर लिया है। उसका प्राप्त करना तो उसे जान लेना ही है। इसीलिए इसके पहले 'ज्ञानसंछिन्नसंशयं' कहा है। संशय की अँधियारी में ही तो आत्मा लापता थी और यह संशय पैदा हुआ था अज्ञान से, जैसा कि आगे लिखा है। अब ज्ञान के दीपक ने उसी को मिटा दिया। मगर ज्ञान को पक्का और दृढ़ होने के लिए समाधि की जरूरत है। उसके बिना वह मजबूत होई नहीं सकता। किंतु कर्मों को करते रहने पर समाधि के लिए फुरसत कहाँ? इसीलिए कर्मों का संन्यास भी बता दिया है। किंतु यह संन्यास मिथ्याचार और दंभ न हो, नकली न हो, इसीलिए कह दिया कि कर्मों के करते-करते अंत:करण की शुद्धि हो जाने पर जब संन्यास की योग्यता हो जाए और उसका अवसर आ जाए तभी संन्यास करना ठीक है। यहाँ और आगे योग का अर्थ है कर्म।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:।

छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥42॥

इसीलिए हे भारत, अज्ञान से पैदा होनेवाले (और) हृदय में ही घर बना के जमनेवाले इस संशय (रूपी प्रचंड शत्रु) को आत्मा के ज्ञानरूपी तलवार से कत्ल करके उठ खड़े हो (और युद्धात्मक) कर्म करो। 42।

यहाँ ज्ञान को तलवार कहने का आशय यही है कि जैसे तीखी तलवार से ही जबर्दस्त शत्रु को मार सकते हैं; कमजोर या भोथरी तलवार से कोशिश करने पर उलटे खतरा रहता है। वैसे ही ज्ञान खूब दृढ़ और शक-सुभे से बिलकुल ही अछूता जब तक न हो जाए इस अज्ञान का और तन्मूलक संशय का भी खात्मा होता ही नहीं। इसलिए दीर्घकाल तक यत्न करके पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना निहायत जरूरी है। उपनिषदों की आख्यायिकाएँ इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि कच्चे ज्ञानवाले का संशय उसे कैसे परेशान करता है।

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽ ध्या य:॥4॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग नामक चौथा अध्याोय यही है।





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